Mir Taqi Mir Shayari - मीर तक़ी मीर की शायरी
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दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो ये बस्ती उजाड़ कर
कौन लेता था नाम मजनूँ का
जब कि अहद-ए-जुनूँ हमारा था
कौन कहता है न ग़ैरों पे तुम इमदाद करो
हम फ़रामोशियों को भी कभू याद करो
था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था
कहा मैं ने गुल का है कितना सबात !
कली ने ये सुन कर तबस्सुम किया !!
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हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं !
अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं !!
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दीदनी है शिकस्तगी दिल की !
क्या इमारत ग़मों ने ढाई है !!
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कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन !
शौक़ ने हम को बे-हवास किया !!
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रोज़ आने पे नहीं निस्बत-ए-इश्क़ी मौक़ूफ़ !
उम्र भर एक मुलाक़ात चली जाती है !!
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अब के जुनूँ में फ़ासला शायद न कुछ रहे !
दामन के चाक और गिरेबाँ के चाक में !!
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जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम !
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले !!
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मुझे काम रोने से अक्सर है नासेह !
तू कब तक मिरे मुँह को धोता रहेगा !!
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कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की !
धूम है फिर बहार आने की !!
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जौर क्या क्या जफ़ाएँ क्या क्या हैं !
आशिक़ी में बलाएँ क्या क्या हैं !!
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खिलना कम कम कली ने सीखा है !
उस की आँखों की नीम-ख़्वाबी से !!
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दे के दिल हम जो हो गए मजबूर !
इस में क्या इख़्तियार है अपना !!
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ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा !
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा !!
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यूँ नाकाम रहेंगे कब तक जी में है इक काम करें !
रुस्वा हो कर मर जावें उस को भी बदनाम करें !!
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इश्क़ है इश्क़ करने वालों को !
कैसा कैसा बहम क्या है इश्क़ !!
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पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग !
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारीयाँ !!
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दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश !
गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता !!
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हम ने अपनी सी की बहुत लेकिन !
मरज़-ए-इश्क़ का इलाज नहीं !!
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बुलबुल ग़ज़ल-सराई आगे हमारे मत कर !
सब हम से सीखते हैं अंदाज़ गुफ़्तुगू का !!
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हस्ती अपनी हबाब की सी है !
ये नुमाइश सराब की सी है !!
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मिरा जी तो आँखों में आया ये सुनते !
कि दीदार भी एक दिन आम होगा !!
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इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो !
सारे आलम में भर रहा है इश्क़ !!
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अब देख ले कि सीना भी ताज़ा हुआ है चाक !
फिर हम से अपना हाल दिखाया न जाएगा !!
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कहते तो हो यूँ कहते यूँ कहते जो वो आता !
ये कहने की बातें हैं कुछ भी न कहा जाता !!
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इश्क़ करते हैं उस परी-रू से !
'मीर' साहब भी क्या दिवाने हैं !!
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देख तो दिल कि जाँ से उठता है !
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है !!
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यूँ उठे आह उस गली से हम !
जैसे कोई जहाँ से उठता है !!
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ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत !
दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत !!
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मेरे रोने की हक़ीक़त जिस में थी !
एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा !!
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जाए है जी नजात के ग़म में !
ऐसी जन्नत गई जहन्नम में !!
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सारे आलम पर हूँ मैं छाया हुआ !
मुस्तनद है मेरा फ़रमाया हुआ !!
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उम्र गुज़री दवाएँ करते 'मीर' !
दर्द-ए-दिल का हुआ न चारा हनूज़ !!
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अब जो इक हसरत-ए-जवानी है !
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है !!
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सख़्त काफ़िर था जिन ने पहले 'मीर' !
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया !!
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जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए !
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए !!
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हम जानते तो इश्क़ न करते किसू के साथ !
ले जाते दिल को ख़ाक में इस आरज़ू के सा !!
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दिल मुझे उस गली में ले जा कर !
और भी ख़ाक में मिला लाया !!
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जब कि पहलू से यार उठता है !
दर्द बे-इख़्तियार उठता है !!
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इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है !
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़ !!
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इश्क़ में जी को सब्र ओ ताब कहाँ !
उस से आँखें लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ !!
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शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए !!
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यही जाना कि कुछ न जाना हाए !!
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम !!
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वस्ल में रंग उड़ गया मेरा !
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा !!
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गुल हो महताब हो आईना हो ख़ुर्शीद हो मीर !
अपना महबूब वही है जो अदा रखता हो !!
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पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है !
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है !!
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राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या !
आगे आगे देखिए होता है क्या !!
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आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम !
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये !!
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अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर' !
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया !!
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नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए !
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है !!
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याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ !
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा !!
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इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है !
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है !!
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मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों !
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं !!
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होगा किसी दीवार के साए में पड़ा 'मीर' !
क्या रब्त मोहब्बत से उस आराम-तलब को !!
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सिरहाने 'मीर' के कोई न बोलो !
अभी टुक रोते रोते सो गया है !!
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हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया !
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया !!
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दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया !
हमें आप से भी जुदा कर चले !!
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मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में !
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया !!
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‘मीर’ हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे !
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो !!
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उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर !
शम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनात का !!
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ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम !
आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का !!
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चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर !
मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच !!
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बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो !
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो !!
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कोई तुम सा भी काश तुम को मिले !
मुद्दआ हम को इंतिक़ाम से है !!
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दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है !
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया !!
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इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है !
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है !!
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फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे !
पर हमें उन में तुम्हीं भाए बहुत !!
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शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ !
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का !!
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होगा किसी दीवार के साए में पड़ा 'मीर' !
क्या रब्त मोहब्बत से उस आराम-तलब को !!
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'मीर' अमदन भी कोई मरता है !
जान है तो जहान है प्यारे !!
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बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा !
क़हर होता जो बा-वफ़ा होता !!
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रोते फिरते हैं सारी सारी रात !
अब यही रोज़गार है अपना !!
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‘मीर’ साहब तुम फ़रिश्ता हो तो हो !
आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ !!
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क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़ !
जान का रोग है बला है इश्क़ !!
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बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को !
देर से इंतिज़ार है अपना !!
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नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की !
चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया !!
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अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे !
पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे !!
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क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता !
अब तो चुप भी रहा नहीं जाता !!
Mir Taqi Mir
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