मैंने अपने अपनी कविता से माध्यम से उन मजदूरों के दर्द को बयां करने की कोशिश की है जो लॉक डाउन में परिवहन व्यवथाओं के बंद होने से अपने गॉंव को पैदल ही निकल पड़े जिसमे से बहुत सारे लोग अपने गंतव्य को पहुँच गये लेकिन बहुत सारे लोगों के लिए ये सफ़र अंतिम सफ़र साबित हुआ!
1. मजदूरों को मेरे ईश्वर...
मजदूरों को मेरे ईश्वर
तूने दे दी कैसी विपदाएं
मेरी ऑंखें भर आती हैं
सुनकर उनकी करुड कथाएं
कहीं रोता बिलखता बचपन
कहीं सड़कों पर दर्द सुनती माँए
कहीं भूखे प्यासे लोग बैठे हैं
खाने की आस लगाए
कोई कंधो पर बूढ़ी माँ को ढोकर
बेटे का फ़र्ज़ निभाए
कोई राहों में अनाथ हुआ है
तो कहीं रोती है विधवाएं
मजदूरों को मेरे ईश्वर
तूने दे दी कैसी विपदाएं
मेरी ऑंखें भर आती हैं
सुनकर उनकी करुड कथाएं
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कुछ लोग खड़े थे दरवाजों पर
अपनों के आने की आस लगाए
अपने तो कभी लौट कर आए ही नहीं
आईं बस उनकी अंतिम यात्राएं
कोई उदासीन सरकारों को
इतना तो समझाए
जब कोई मर जाता है
तब उसकी लाशें पहुंचा देते है घर तक
अगर जीते जी उनको पहुंचा देते
तो ये होती नहीं व्यथाएं
ईश्वर करे भविष्य में
फिर ऐसा दिन ना आए
जब बचपन अपने कंधो पर
अपनों की लाश उठाएं
मजदूरों को मेरे ईश्वर
तूने दे दी कैसी विपदाएं
मेरी ऑंखें भर आती हैं
सुनकर उनकी करुण कथाएं
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2. शहरों में अब डर लगता है... (Hindi Poem)
शहरों में अब डर लगता है
भूख-प्यास नित उनको डसता है
शहर छोड़ वो जाना चाहे
खुशियों के उन गावों में
पैदल ही वो निकल पड़े है
संसाधन के अभावों में
कांटो पर चल कुछ घर पहुंचे
कुछ जीवन हार गए राहों में
गूंगे बहरे लोग बैठे है
प्रशासनिक दरवारों में
पत्थर दिल शासक बैठे है
इन चुनी हुई सरकारों में
शहर छोड़ वो जाना चाहे
खुशियों के उन गाँवों में
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हर पल खुशियां बसती है
जिसके सरल स्वभावों में
पुष्पों की सुकुमार कली
जो मुरझा जाती है छावों में
चलते चलते छाले पड़ गए
उन नन्हे नन्हे पाँवों में
सिसक सिसक कर पूछ रही है
इसमें मेरा कसूर है क्या
पैरो छाले पड़ना
गरीबों का दस्तूर है क्या
बहुत गहरा दर्द छुपा है
इन अनभिज्ञ सवालों में
गरीब क्यों और गरीब हुआ है
इन पिछले 70 सालों में
शहर छोड़ वो जाना चाहे
खुशियों के उन गाँवों में
By Rajesh Kumar Verma
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